नागपुर का दीक्षा भूमि स्मारक दलितों के लिए किसी तीर्थस्थल से कम नही है। यहीं डॉ अंबेडकर ने वर्ण व्यवस्था पर आधारित हिंदू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धर्म का रास्ता अपनाया था।
यहीं मेरी मुलाक़ात एक बुज़ुर्ग मनोहर बिट्वा पाटिल से हुई जो यह बताते हुए भावुक हो जाते हैं कि कैसे इस जगह पर लोगों के हुजूम के बीच अंबेडकर ने बौद्ध धर्म का रास्ता चुना। ख़ुद मनोहर उस वक्त बच्चे थे लेकिन उस दिन को याद करते हुए उनकी आंखें चमक जाती हैं।
चुनाव की बातें चलने पर वह रिपब्लिकन पार्टी का नाम लेने पर मायूस हो जाते हैं। वह कहते हैं, “आरपीआई बची है लेकिन उसके टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। आरपीआई संगठित रहती तो यह दिन देखने को नहीं मिलता। इन लोगों ने टुकड़े कर दिए, इसलिए आरपीआई ख़त्म हो गई।”
जिस रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया (आरपीआई) के ज़रिए दलितों को एक बड़ी राजनीतिक ताक़त बनाने का सपना देखा गया था, आज वो दर्जनों गुटों में बंटी है। छह दिसंबर 1956 को डॉ। अंबेडकर के निधन के लगभग 10 महीने बाद उनके अनुयायियों ने तीन अक्तूबर 1957 में आरपीआई की नींव डाली थी।
आख़िर क्यों खंड-खंड हो गई आरपीआई। नागपुर में वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश दुबे कहते हैं, “कांग्रेस के नेता यशवंत राव चव्हाण ने कुछ दलित नेताओं और ख़ासकर अंबेडकर के क़रीबी रहे नेताओं को तोड़ा और उन्हें सहयोग दिया। किसी को राज्यसभा में भेजा, किसी को कोई पद दिया और इस तरह उनसे एक संबंध बनाया गया।”
इसी संबंध और सत्ता के सुख ने आरपीआई के नेताओं में महत्वाकांक्षा और मतभेदों की नींव डाली। महाराष्ट्र में दलित वोट बड़ी तादाद में हैं। राज्य की 48 लोकसभा सीटों में बहुत से चुनाव क्षेत्र ऐसे हैं जहां दलित वोट हारजीत का फ़ैसला कर सकते हैं।
आरपीआई के जो सक्रिय और प्रभावी गुट हैं उनमें आरपीआई (अठावले), आरपीआई (गवई), आरपीआई (कबाडे) और भारिपा बहुजन महासंघ शामिल हैं। भारिपा बहुजन महासंघ की कमान डॉ. अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर के हाथों में है।
प्रकाश दुबे बताते हैं, “डॉ. अंबेडकर कभी महाराष्ट्र से चुनाव नहीं जीत पाए। उनके सारे विरोधी उनके ख़िलाफ़ लामबंद हो जाते थे और उन्हें पराजय झेलनी पड़ी। यह बात दलित संगठनों को खटकती थी और इसीलिए वे शुरू में कांग्रेस से दूरी बनाकर रखते थे। लेकिन बाद वो कांग्रेस और ख़ासकर सत्ता के साथ हो लिए।”
आरपीआई (अठावले) की महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष भूपेश थुलकर आरपीआई में इतने सारे गुट बनने के लिए किसी अन्य पार्टी को नहीं, बल्कि सबसे ज़्यादा कुछ नेताओं के अहंकार को ज़िम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं, “गुटबाज़ी के लिए नेताओं का अहंकार ही कारण है।
एकता के साथ रहने की जब मन में इच्छा न हो, तब तक एक साथ नहीं रहा जा सकता है।” इन चुनावों में आरपीआई (अठावले) अब भाजपा और शिवसेना के गठबंधन का हिस्सा है, तो प्रकाश अंबेडकर के वाले धड़े की आम आदमी पार्टी से गठबंधन की कोशिशें नाकाम दिख रही हैं।
रामदास अठावले हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से राज्यसभा के सांसद बने हैं। प्रकाश दुबे कहते हैं, “भाजपा अपने इस क़दम को यह कहकर भुना रही है कि जिस कांग्रेस ने अंबेडकर को महाराष्ट्र में बार-बार हराया, और उन्हें भाजपा का मूल संगठन जनसंघ बंगाल से जिताकर संसद में लाया था, ठीक इसी तरह अब उसने आठावले को संसद पहुंच कर इतिहास को दोहराया है।
वहीं भाजपा और शिवसेना के साथ गठबंधन पर उठने वाले सवालों पर भूपेश कहते हैं कि एनसीपी और कांग्रेस दूसरी पार्टियों से ज्यादा जातिवादी
महाराष्ट्र में आरपीआई के इस बिखराव के बीच बहुजन समाज पार्टी ने भी राज्य में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश की। कई सीटों पर उसके उम्मीदवार आम चुनावों में साठ हज़ार से सत्तर हज़ार से ज़्यादा वोट लेने लगे, लेकिन बाद में उन्हें भी ख़ास कामयाबी नहीं मिली।
प्रकाश दुबे इसकी वजह बताते हैं, “रिपब्लिकन पार्टी के नेतृत्व से ख़फा हो कर कुछ लोग जब बहुजन समाज पार्टी में आए तो उन्हें पता चला कि बिना कारण बताए अचानक उनमें से किसी को भी बदला जा सकता है। और इसीलिए उनकी ज़मीन यहां पर नहीं बनी।”
दूसरी तरफ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से तीन दशकों से जुड़े सुभाष थोरा बीएसपी नेता मायावती की राजनीति पर सवाल उठाते हैं।
कम्युनिस्ट कहते हैं, “बीजेपी के सहयोग या फिर सोशल इंजीनियरिंग से मायावती मुख्यमंत्री बन जाती हैं, लेकिन इससे नीचे के तबके को तो कुछ नहीं मिलता है। उन्हें तब कुछ मिलेगा जब उन्हें ज़मीन दी जाए, उनके लिए उद्योग लगाएं, उन्हें नौकरियां दें। लेकिन अगर मायावती ऐसा करने लगेंगी तो ऊंची जातियां उनसे खिसक जाएंगी।
कुछ दलित नेता कांग्रेस छोड़ कर शिवसेना में भी गए हैं। कई ऐसे आरक्षित चुनाव क्षेत्र हैं जहां से शिवसेना के सांसद हैं। महाराष्ट्र में आज दलित नेता आरपीआई, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस से लेकर बीजेपी और शिवसेना सभी जगह मौजूद हैं। इसीलिए उनके वोट बंटते हैं।
ये बात सही है कि महाराष्ट्र में सुशील कुमार शिंदे जैसे कई नेताओं को सत्ता और पद हासिल हुआ है, लेकिन इस दलगत राजनीति में डॉ. अंबेडकर के उस मूल मंत्र पर अमल होना मुश्किल दिखता है जिसमें उन्होंने संगठित होकर एकजुट संघर्ष करने का नारा दिया था।
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